पतरापाली का सरकारी स्कूल क्या किसी बड़े इंतज़ार है सरकार को?
घरघोड़ा (रायगढ़)। राजस्थान के झालावाड़ में स्कूल की छत गिरने से मासूम बच्चों की मौत की खबर ने पूरे देश को रुला दिया — लेकिन छत्तीसगढ़ के अफसर शायद पत्थर के बने हैं। घरघोड़ा विकासखंड के पतरापाली गांव में मौत सिर पर लटक रही है, और प्रशासन आंख मूंदे बैठा है।
यहां का शासकीय प्राथमिक विद्यालय एक खंडहर बन चुका है। छतों से हर पल झड़ता प्लास्टर, दीवारों में दरारें इतनी गहरी कि मौत घात लगाए बैठी है। बच्चों की हर सांस अब डर से भरी होती है। यह कोई स्कूल नहीं — एक ‘स्लो प्वाइजन’ है, जहां जिंदगी रोज़ टपक-टपक कर खत्म हो रही है।
गांव वाले गिड़गिड़ा चुके हैं, सरपंच चिल्ला चुका है, पालक समिति थक चुकी है। लेकिन अफसरशाही की मोटी खाल पर कोई फर्क नहीं पड़ा।
लगता है शासन-प्रशासन के कान तभी खुलते हैं जब “लाशें बोलती हैं।” क्या पतरापाली में भी अब कोई मासूम अपनी जान गंवाएगा, तब जाकर कोई इंजीनियर, कोई अफसर, या कोई नेता नींद से जागेगा?
यह महज़ एक भवन की कहानी नहीं — यह सिस्टम की संवेदनहीनता का आईना है। यह उस शासन का सच है, जो “बेटी पढ़ाओ” के नारे लगाकर अख़बारों में फोटो छपवाता है, लेकिन ज़मीन पर बच्चों को मरने के लिए छोड़ देता है।
अगर अब भी नहीं चेते — तो अगली तस्वीर मलबे में दबी स्कूली बैगों की होगी, और अगली हेडलाइन होगी:
“सरकारी लापरवाही ने ली मासूमों की जान।”
क्या तब भी कोई कागजी कार्यवाही आगे बढ़ेगी? या फिर सिस्टम फिर किसी और हादसे के इंतज़ार में बैठा रहेगा…?


